सुंदरकांड का हृदय: अशोक वाटिका में हनुमान और सीता जी का मिलन
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रामायण केवल एक महाकाव्य नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन की भावनाओं का एक ऐसा समुद्र है जिसमें हर बार डुबकी लगाने पर कुछ न कुछ नया रत्न मिलता है। रामचरितमानस में सात सोपान (कांड) हैं, लेकिन उन सबमें 'सुंदरकांड' का स्थान सबसे अलग और विशिष्ट है। इसे 'रामायण का हृदय' कहा जाता है।
आज हम सुंदरकांड की उस कहानी (प्रसंग) पर चर्चा करेंगे जो न केवल पढ़ने में सबसे ज्यादा दिलचस्प है, बल्कि जो हर निराश व्यक्ति के जीवन में आशा का दीप जला सकती है। यह कहानी है—अशोक वाटिका में हनुमान जी और माता सीता की पहली भेंट।
अशोक वाटिका: सोने की लंका में दुख का सागर
कहानी की शुरुआत होती है हनुमान जी के लंका प्रवेश से। समुद्र को लांघकर, लंकिनी को हराकर और विभीषण से मिलने के बाद, हनुमान जी अशोक वाटिका पहुँचते हैं। पूरी लंका सोने से बनी थी, वहां भोग-विलास की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उस पूरी नगरी में अगर कोई एक जगह थी जहाँ पवित्रता और तपस्या जीवित थी, तो वह थी अशोक वाटिका।
हनुमान जी ने एक पेड़ के पत्तों के पीछे छिपकर देखा। वहां माता सीता बैठी थीं। उनकी दशा का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी लिखते हैं:
"कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥
निज पद नयन दिएँ मन राम पद। लीन चरन कमल लच्छिधाम पद॥"
भावार्थ: माता का शरीर सूखकर बहुत दुर्बल हो गया है। उनके सिर पर बालों की एक ही वेणी (लट) है। वे अपने हृदय में निरंतर श्री रघुनाथजी के गुणों का जाप कर रही हैं। उनकी नज़रें अपने ही चरणों पर टिकी हैं, लेकिन मन पूरी तरह से प्रभु श्री राम के चरण कमलों में लीन है।
यह दृश्य देखकर हनुमान जी का हृदय भर आया। जो जगत जननी हैं, जो त्रिलोकीनाथ की पत्नी हैं, उनकी ऐसी दशा! यह भक्ति की पराकाष्ठा थी।
रावण का आगमन और सीता जी का स्वाभिमान
उसी समय लंकापति रावण अपनी रानियों के साथ वहां पहुँचा। उसने माता सीता को साम, दाम, दंड और भेद—हर तरह से समझाने और डराने की कोशिश की। उसने अपने वैभव का लालच दिया, पटरानी बनाने का प्रलोभन दिया।
यहाँ पर भारतीय नारी के स्वाभिमान और पतिव्रता धर्म का सबसे अद्भुत उदाहरण देखने को मिलता है। माता सीता ने रावण की तरफ देखा तक नहीं। उन्होंने अपने और रावण के बीच एक 'तिनका' (तृण) रख लिया।
"तृण धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरी अवधपति परम सनेही॥"
यह तिनका सिर्फ घास का टुकड़ा नहीं था, यह एक लक्ष्मण रेखा थी। यह संदेश था कि "हे रावण! तुम मेरे लिए इस तिनके के समान तुच्छ हो।" सीता जी ने निडर होकर कहा कि जिस तरह जुगनू कभी सूर्य की बराबरी नहीं कर सकता, वैसे ही तू श्री राम के सामने कुछ भी नहीं है।
रावण क्रोधित हो गया और उसने सीता जी को मारने के लिए तलवार (चंद्रहास) उठा ली। लेकिन मंदोदरी ने उसे रोका। रावण जाते-जाते राक्षसियों को आदेश दे गया कि सीता को डराकर अपने वश में करो।
त्रिजटा का सपना: घोर निराशा में आशा की किरण
जब रावण चला गया, तो राक्षसियों ने सीता जी को बहुत डराया। माता सीता इतनी दुखी हो गईं कि उन्हें लगा अब प्राण त्याग देने चाहिए। उस समय वहां मौजूद एक राक्षसी, जिसका नाम त्रिजटा था, वह बाकियों से अलग थी। त्रिजटा का प्रसंग हमें सिखाता है कि बुरे लोगों के बीच भी अच्छे लोग हो सकते हैं।
त्रिजटा ने सबको रोकते हुए अपना एक सपना सुनाया:
"सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥"
भावार्थ: "मैंने सपने में देखा है कि एक वानर ने पूरी लंका जला दी है। राक्षसों की सेना मारी गई है। रावण गधे पर बैठा है, उसका सिर मुंडा हुआ है और बीसों भुजाएं कटी हुई हैं।"
त्रिजटा ने कहा कि यह सपना सच्चा होगा और श्री राम की जीत निश्चित है। इस बात ने माता सीता को थोड़ी सांत्वना दी, लेकिन उनका दुख कम नहीं हुआ। वे सोचने लगीं कि राम जी तो बहुत दूर हैं, तब तक मैं जीवित कैसे रहूँगी?
यही वह पल था जब हनुमान जी ने सोचा कि अब और देर करना उचित नहीं है। माता सीता आत्महत्या करने का विचार कर रही थीं। हनुमान जी, जो पेड़ के ऊपर छिपे थे, उन्होंने सही समय का इंतजार किया।
मुद्रिका का गिरना: सुंदरकांड का 'टर्निंग पॉइंट'
पूरे सुंदरकांड का सबसे रोमांचक और भावुक पल अब आता है। हनुमान जी ने पेड़ के ऊपर से प्रभु श्री राम की अंगूठी (मुद्रिका) नीचे गिराई।
"तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष विषाद हृदयँ अकुलानी॥"
अचानक अपनी गोद में उस अंगूठी को देखकर माता सीता चौंक गईं। वह अंगूठी अत्यंत सुंदर थी और उस पर 'राम' नाम खुदा हुआ था। सीता जी ने उसे तुरंत पहचान लिया।
उनके मन में एक साथ 'हर्ष' (खुशी) और 'विषाद' (दुख) दोनों उमड़ पड़े।
खुशी इसलिए कि यह मेरे प्रभु की निशानी है, और दुख इसलिए कि यह यहाँ कैसे आई? क्या प्रभु पर कोई संकट तो नहीं?
वे सोचने लगीं कि माया से यह अंगूठी नहीं बन सकती, क्योंकि मायावी चीजों में इतनी दिव्यता नहीं होती। वे चारों तरफ देखने लगीं।
हनुमान जी का प्रगट होना और 'राम कथा'
तब हनुमान जी ने पेड़ की आड़ से ही मधुर वाणी में श्री रामचन्द्र जी के गुणों का बखान करना शुरू किया।
"रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥"
लंबे समय बाद अपने कानों से प्रभु की बड़ाई सुनकर माता सीता का सारा दुख भाग गया। उन्होंने कहा—"जो भी यह अमृत जैसी वाणी सुना रहा है, वह सामने क्यों नहीं आता?"
तब हनुमान जी छोटे से रूप में (मशक समान) माता सीता के सामने आए।
पहले तो सीता जी डर गईं, उन्हें लगा कि यह रावण ही माया बदलकर आया है। वे फिर से मुंह फेरकर बैठ गईं। यह देखकर हनुमान जी ने बहुत ही विनम्रता से अपना परिचय दिया:
"राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥"
अर्थ: "हे माता जानकी! मैं श्री रामजी का दूत हूँ। मैं करुणानिधान की सौगंध खाकर सत्य कहता हूँ। यह अंगूठी मैं ही लाया हूँ, प्रभु ने इसे पहचान के तौर पर दिया है।"
जैसे ही सीता जी को विश्वास हुआ कि यह सचमुच उनके प्रभु का सेवक है, उनकी आँखों से आंसुओं की धारा बह निकली। यह मिलन इतना भावुक था कि इसे शब्दों में पिरोना कठिन है। एक माँ और पुत्र का ऐसा संवाद, जहाँ दोनों की आँखों में प्रेम और विरह के आंसू थे।
"मातु न मोहि कछु दुख विसेषी"
सीता जी ने हनुमान जी से पूछा—"हे तात! क्या मेरे प्रभु और लक्ष्मण जी सुख से तो हैं? क्या वे कभी मुझे याद करते हैं?"
हनुमान जी ने जो उत्तर दिया, वह पत्थर दिल को भी मोम कर दे। उन्होंने कहा:
"कहतु कछुक दुख घटि होइ का ही।
कहहुँ मातु उर रहत न माहीं॥"
हनुमान जी ने बताया कि प्रभु श्री राम आपके वियोग में कितने दुखी हैं। वे कहते हैं—"माता, प्रभु शारीरिक रूप से ठीक हैं, लेकिन आपके बिना वे एक पल भी चैन से नहीं रहते। उन्हें सब कुछ विष के समान लगता है।"
इसके बाद, जब सीता जी को हनुमान जी के छोटे शरीर को देखकर संदेह हुआ कि "इतने छोटे वानर राक्षसों से कैसे लड़ेंगे?", तो हनुमान जी ने अपना विशाल पर्वताकार रूप (विश्वरूप) दिखाया।
"कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अति बलबीरा॥"
सोने के सुमेरु पर्वत जैसा विशाल शरीर देखकर माता सीता का विश्वास दृढ़ हो गया। उन्होंने हनुमान जी को आशीर्वाद दिया— "अजर अमर गुन निधि सुत होहू" (हे पुत्र! तुम अजर-अमर हो जाओ और गुणों के खजाने बनो)। यही वह आशीर्वाद है जिसके कारण हनुमान जी आज भी इस पृथ्वी पर जागृत देवता माने जाते हैं।
इस कहानी से हमें क्या सीखना चाहिए?
मित्रों, सुंदरकांड का यह भाग हमें जीवन के सबसे बड़े सत्य से रूबरू कराता है।
- धैर्य की परीक्षा: माता सीता अशोक वाटिका में घोर कष्ट में थीं, लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा। जब अँधेरा सबसे घना होता है, तभी सवेरा होने वाला होता है।
- भक्ति की शक्ति: हनुमान जी वहां केवल अपनी ताकत से नहीं पहुँचे थे, वे 'राम नाम' के सहारे पहुँचे थे। जब आपके पास साधन न हों, तो विश्वास को अपना साधन बना लीजिये।
- संवाद का महत्व: हनुमान जी ने सीधे जाकर लंका नहीं जलाई, पहले उन्होंने माता सीता का दुख बांटा, उन्हें ढाढस बंधाया। शक्ति से पहले 'सांत्वना' जरूरी है।
निष्कर्ष
अशोक वाटिका का यह प्रसंग सिर्फ रामायण का हिस्सा नहीं है, यह एक 'इमोशनल हीलिंग' है। जब हनुमान जी ने कहा था— "अब कछु दिवस जननी धरु धीरा" (माता, कुछ दिन और धैर्य रखो), तो वह संदेश हम सबके लिए था कि बुरा वक्त हमेशा के लिए नहीं होता।
इसके बाद हनुमान जी ने अशोक वाटिका को उजाड़ा, अक्षय कुमार का वध किया और लंका दहन किया, लेकिन उन सबका आधार वह 'आशीर्वाद' था जो उन्हें इसी मिलन में माता सीता से मिला था।
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सुंदरकांड में हनुमान जी के इतने सारे कारनामे हैं—समुद्र लांघना, लंका जलाना, संजीवनी लाना। लेकिन आपको व्यक्तिगत रूप से कौन सा हिस्सा सबसे ज्यादा प्रेरित करता है?
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