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क्या होती है विन्रमता ! सीखिये हनुमान जी से

What is humbleness | क्या होती है विन्रमता ! सीखिये हनुमान जी से

श्री राम चरित मानस में लिखा हैं कि, जब हनुमान जी समुंद्र पार कर लंका पहुँचते हैं तो उसके पहले कई परेशानी कई राक्षसी राक्षस से सामना हुआ और हनुमान जी ने सबको परलोक पहुंचा दिया और ढूढ़ते ढूढ़ते अशोक वाटिका में पहुँचे  और माता सीता से मिलते हैं तब  सीता माता ने हनुमान जी से पूछा की कौन हो भाई तुम और कहाँ से आये हो, तब हनुमान जी कहते है की-

"राम दूत मैं मातु जानकी"

हनुमान जी ये नहीं कहा कि मैं हनुमान हु जिसने सुरसा नाम की राक्षसी को मारा या लंकनी को एक ही लात में परलोक भेज दिया हैं, श्री रामचरित मानस में ये भी लिखा हैं कि क्या "आगे जाय लंकनी रोका"  हनुमान जी को लंका में जाने से पहले लंका के प्रमुख़ द्वार में ही लंकनी मिलती हैं हनुमान जी तब भी बड़े विन्रम होकर कहते की माता मुझे जाने दीजिये मै अपने प्रभु श्री राम की भार्या माता सीता का पता लगाने जा रहा हूँ लेकिन लंकनी को अपने बल पर बड़ा अहंकार / अभिमान था, अब हनुमान जी विवस हो गये कि अब करे क्या, ये मुझे जाने नहीं देगी और मुझे अपने प्रभु श्री राम की आज्ञा का पालन भी करना हैं, तब लिखा गया है कि -"मारहु लात गई सुरलोका" अब आप सोचिये कि जिसके एक ही लात कि मार से इतनी ताकतवर राक्षशी परलोक सिधार गई, तो उसमे कितनी शक्ति होगी, फिर भी उनकी विन्रमता देखिये वो अपना परिचय कैसे दे रहे हैं कि "राम दूत मैं मातु जानकी" कि मैं राम का दूत हूँ माता, उन्होंने अपनी बड़ाई नहीं बताई कि मैंने किस किस मारा है, उन्होंने कहा कि मैं राम का दूत हु और देखिये कितने विन्रम हो के आगे कहते हैं की, हे माँ सत्य कह रहा हु और मैं उन प्रभु की शपथ खा रहा हु, जो बड़े ही करुणा निधान हैं -"सत्य शपथ करुणा निधान कि "

"राम दूत मैं मातु जानकी"

“यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी”

देखिये हनुमान जी कि विन्रमता, कितने साधारण भाव से कह रहे रहे की माता यह अगुँठी प्रभु श्री राम ने मेरी पहचान के लिए दी हैं की मैं प्रभु का दूत हूँ प्रभु श्री राम ने यह अगुँठी निशानी के तौर पर दी है की मैं उनका ही दूत हूँ |

"राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥

यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥"

यह चौपाई सुंदरकांड कि है, चरित्र भूमिका - माता सीता और हनुमान जी

श्री रामचरित मानस के मूल कवि - श्री गोस्वामी तुलसीदास जी 


ऐसा लिखा है रामायण में कि जब हनुमान जी की पूँछ में रामण आग लगवाता हैं तो हनुमान जी ने पूरी लंका जला डाली लेकिन उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ | 

और ये भी लिखा हैं की जब हनुमान जी की पूँछ में आग लगी तो रामण की दासिया माता सीता को बताती हैं की हनुमान के पूँछ में आग लगा दी गई हैं | तब माता सीता अग्नि देव को हाथ जोड़ कर प्रार्थना की वो मेरा बेटा हैं उसका बाल भी बाँका ना हो

इसमें सीखने वाली बात ये हैं की जब भी आपके साथ कुछ भी अप्रत्यासित हो तो समझ लेना की आपके पीछे हाथ कोई और जोड़ा है|

क्योकि ऐसा हो नहीं सकता की पूँछ में आग लगी हो, पूरी लंका जला डाली, लेकिन एक बाल भी बाँका नहीं हुआ | ये अप्रत्यासित था पर हुआ क्योकि हाथ किसी और ने जोड़े हैं | 

पूरी लंका जला डाली "उलटि पलटि लंका सब जारी" और सिर्फ एक बार नहीं उलटि पलटि मतलब एक बार जलाने के बाद फिर से जलाई की कही बच तो नहीं गई फिर भी उनका एक बाल तक नहीं जला  


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